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दो संसार - लेखक - जेम्स पीटर जैकबसन

दो संसार - लेखक - जेम्स पीटर जैकबसन

सालजक कोई अच्छी नदी नहीं है।
इसके पूर्वी किनारे पर एक गावं है जिसमें उदासीनता, गरीबी और एक अजीब सा सुनसान छाए रहते हैं।
नदी के बिलकुल किनारे पर ही कुछ झोपड़े खड़े हैं - कुरूप भिखारियों की तरह नंगे और भूखे, जो अपने मल्लाहों को खाना भी नहीं दे सकते !
इन झोपड़ों के कमजोर बाजू परस्पर सहारा लिए हुए हैं।
धूप और पानी से सताई हुई लंगड़े की लाठी की सी इनकी बल्लियां नदी के गंदले मटमैले जल में निराशा से जैसे झुकी जाती है।
कोठरियों के आगे दालान हैं, जिनपर नीचे छप्पर छाए हुए हैं। इन कोठरियों की खिड़कियों में उजाला बहुत कम पहुंच पाता है।
ये खिड़कियां अपनी धुंधली आँखों में घृणा का रोष भरकर विकृत रूप से नदी के उस पार खड़े खुशनुमा मकानों को देख रही हैं !
वे मकान एक दूसरे से चिपटे हुए नहीं बने हैं, बल्कि एक-एक अलग, अथवा दो पास-पास स्नेही साथियों की तरह जहाँ-तहाँ समस्त शाड्वल पर क्षितिज की झीनी सुनहरी सिमा तक बिखरे हुए हैं !
पर उन गरीब घरों में उजाला भी नहीं है। भूली-भूली सी जीवन से थकी हुई वह नदी मंद गति से कुलमुलाती हुई - अनवरत बही चली जा रही हैं। ..... इस कुलमुलाहट के भार से इन गरीब घरों का मंद प्रकाश दब-दबकर और भी अँधेरा और सुनसान हो जाता है।
सूरज डूब रहा था।
हवा के हल्के झोंके किनारे पर खड़े पतले नरकुलों में से आ-आकर उन्हीं में छिप-छिप जाते थे।
उस पार से एक टिड्डी दल हवा के इन्ही झोंके पर भिनभिनाता हुआ इस पाड़ उड़ आया।
नदी के ऊपरी बहाव की तरफ से एक नाव आ रही थी।
किनारे वाले एक गरीब झोंपड़े में दालान के छज्जे पर एक क्षीणकाय दुर्बल औरत खड़ी नाव को देख रही थी।
वहां ऊपर जहाँ नाव थी, नदी की सतह पर अस्तप्राय सूर्य की परख स्वर्णिम किरणें चमचम करती जैसे सोई हुई थी, और यह नाव जैसे स्वर्ण दर्पण पर तिरती हुई चली आ रही थी।
चमक से अपनी आँखों को बचाने के लिए उस औरत ने अपने हाथ से साया कर रखा था। स्वच्छ संध्या की इस आभा में औरत का मोम-सा पीला मुख ज्योतित हो उठा और ऐसा श्वेत फें मावस की रातों में भी सागर की लहरों को प्रकाशित करता मालूम पड़ता है !
डर से सहमी हुई उसकी निराश आँखे इधर-उधर कुछ खोज-सी रही थी।
क्षीण मस्तिष्क की द्योतक एक मुसकान की रेखा उसके क्लांत होठों पर फैली हुई थी, किन्तु फिर भी उसके उभरे हुए मस्तक पर पड़े हुए बलों ने उसके मस्तक पर मुख पर निराशा के संकल्प की छाया बिछा दी थी।
सूरज की तरफ उसने पीठ कर ली और अपना सर इधर से उधर हिलाने लगी जैसे वह उस घंटी की आवाज न सुन्ना चाहती हो और जैसे उन घटियों का उत्तर वह आप ही आप बड़बड़ाकर बराबर दे रही हो !
मैं रुक नहीं सकती, मैं रुक नहीं सकती !
किन्तु आवाज होती ही रही। वह दालान में इधर से उधर टहलने - और ऐसा मालुम पड़ता था कि उसे कोई भयानक पीड़ा हो रही है। उदासीनता की छाया और भी गहरी हो उठीं। वह भारी-भारी सांसे लेने लगी। वह जैसे रोना तो चाहती हो पर रो न सकती हो।
बहुत-बहुत बरसों से वह उठते-बैठते सोते-जागते एक दुस्सह पीड़ा से छटपटा रही थी। उसने एक-एक करके अनेक सयानी औरतों की सलाह ले ली थीं। कई पवित्र कुंडों का स्नान वह कर आई थी, पर सब व्यर्थ! अंत में वह सितंबर में सेंट बार्थेलोभ्यू की तीर्थ-मात्रा करने के लिए गई थी, वहां एक काने बूढ़े आदमी ने उसे एक ताबीज बताया : एडलविस शीशे का टुकड़ा, कब्रिस्तान की कुछ घास बालों की कुछ लटें और अर्थी में से खपच्ची लेकर एक पोटली में बाँध लो और उस औरत के ऊपर फेंक दो, जो स्वस्थ और जवान हो तथा तुम्हारे पास नदी पार करके आए।
ऐसा करने से रोग तुम्हें छोड़कर उस औरत को लग जाएगा।
अब वह उसी ताबीज को अपने शाल में छिपाए खड़ी थी। जब से उसने यह ताबीज पहना है, यही सबसे पहली नाव थी जो ऊपर से आ रही थी !
वह फिर दालान के छज्जे पर आखड़ी हुई।
नाव इतनी समीप आ गई थी कि उसे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था उसमें छह यात्री हैं।
वे बिलकुल अजनबी मालूम हो रहे थे। नाव के किनारे पर मल्लाह अपनी बल्ली लिए हुए खड़ा था और उसके पास ही एक युवती पतवार लिए उसके आदेशानुसार नाव चला रही थी। युवती पतवार लिए उसके आदेशनुसार नाव चला रही थी। युवती के पास ही एक युवक बैठा उसके नाव-परिचालन को देख रहा था। शेष यात्री नाव के बीच में बैठे थे।
वह रोगिणी स्त्री छज्जे पर झुक गई।
उसके मुख की प्रत्येक रेखा तन गई और उनका हाथ शाल के नीचे था।
उसकी कनपटियां गर्म हो रही थीं।
सांस उसकी जैसे बिलकुल रुक गई थी नथुने फड़क रहे थे, आँखे फटी हुई सी थी -और इसी दशा में वह नाव के बिलकुल अपने नजदीक आने का इन्तजार कर रही थी।
अब यात्रियों की आवाजें कभी-कभी कुछ अस्पष्ट और कभी-कभी बिलकुल साफ़ सुनाई पड़ने लगी थी।
“सुख,” उनमें से एक कह रहा था, “एक बिल्कुल प्रकृतिवादी धारणा है। न्यू टैस्टामेंट में* आप इस शब्द को एक जगह भी नहीं पा सकते!”
“और निर्वाण?”-किसी दूसरे ने प्रश्न किया।
“नहीं; अच्छा तो अब सुनो”, फिर किसी तीसरे ने कहा, “यह सच है कि आदर्श संलाप वही है, जो अपने प्रमुख प्रसंग से बराबर दूर हटता ही चला जाए, पर मुझे ऐसा लगता है कि सबसे अच्छा यह हो कि हम फिर उसी विषय को ले लें, जिस पर कि बातचीत शुरू की गई थी।” “बहुत ठीक। तो ग्रीक लोग...”
“नहीं पहले-पहल फोइनीशियन लोग ॥”
“आप फोइनीशियन लोगों के बारे में जानते ही क्या हैं?”
“कुछ भी नहीं। फिर भी आखिर हमेशा उन्हें आप लोग क्यों भला देते हैं?”
नाव अब रोगिणी की झोपड़ी के बिल्कुल सामने आ गई थी जैसे ही वह वहां से गुज़री किसी ने अपनी सिगरेट जलाई। युवती का मुख उसके अरुणिम प्रकाश में आलोकित हो गया और उस आलोक में उसका भोलापन, ओठों में छिपी सी मुस॒कान, तथा आकाश के अंधकार को भेदती हुई उसके नेत्रों की स्वप्निल रहस्यमयी दृष्टि चमक उठी! यकायक वह रोशनी बुझ गई। पानी में किसी चीज़ के गिरने की 'छप” से आवाज हुई।
नाव आगे बढ़ गई।
लगभग एक वर्ष बाद। घनघोर काली घटाओं में सूरज डूब रहा था और नदी की काली-काली लहरों के ऊपर एक रक्तिम छाया पड़ रही थी।
मैदान के ऊपर शीतल समीरका झोंका बह गया। आज उसमें टिड्डियां नहीं थीं-थी केवल नदी की कलमल ध्वनि और थी नरकुलों की धीमी सनसनाहट भी।
दूर एक नाव बहाव की तरफ चली जा रही थी।
नदी के किनारे बूढ़ी औरत पड़ी हुई थी...युवती पर अपना जादू का ताबीज फेंकने के बाद वह बेहोश हो गई थी ओर उन्माद ने-और शायद उस डॉक्टर ने जो हाल में ही उसके पड़ोस में आया था-उसके रोग में एक परिवर्तन कर दिया था। कई महीनों तक उसकी हालत सुधरती रही और अंत में वह बिलकुल स्वस्थ हो गई।
शुरू शुरू में तो उसे अपनी इस नई तंदुरुस्ती का जैसे नशा चढ़ा रहा; किंतु यह ज़्यादा दिनों तक टिका नहीं । वह उदास और शोकाकुल हो गई। पल भर उसे चैन नहीं पड़ता था। निराशा ने फिर उसके दिल में घर कर लिया, क्योंकि उस नाववाली युवती की सूरत उसके सामने हर वक्त घूमती रहती थी।
उसे ऐसा लगा जैसे वह लड़की उसके पैरों पड़ रही हो-बड़ी दयनीय दृष्टि से उसे देख रही हो। फिर वह गायब हो गई, लेकिन तब भी बुढ़िया को यह लगता रहा कि लड़की उसके पीछे पड़ी है और बराबर कराह रही है।
वह चुप हो गई, किंतु फिर वह उसके सामने आ खड़ी हुई-सूखी हुई और पीली-पीली-उसकी तरफ आंखें फाड़-फाड़कर देखती हुई!
आज इस शाम को भी वह फिर नदी के किनारे खड़ी थी; उसके हाथ में एक छड़ी थी, जिससे वह किनारे की कीचड़ में क्रॉस* पर क्रॉस बनाती चली जाती थी; बार-बार वह उठ खड़ी होती और जैसे कान लगाकर कुछ सुनती, फिर वह एक जगह बैठ गई और झुक कर क्रॉस बनाने लगी।
तभी गिरजे की घंटी बजने लगी। उसने सावधानी से अंतिम क्रॉस खींचा और छड़ी एक तरफ रखकर घुटने टेके और ईश्वर से प्रार्थना की।
प्रार्थना करने के बाद वह नदी में घुसी और घुसती चली गई...यहां तक कि पानी उसके कंधों तक आ गया। उसने अपने हाथ जोड़े और डुबकी ली।
नदी ने उसे अपना लिया...अपनी गहरी गोद में उसे सुला लिया... और बह चली...सदा की तरह भारी मन और उदास गांवों और खेतों को पार करती हुई...बहती ही चली गई!
नाव अब बहुत नज़दीक आ पहुंची थी।
आज भी उस नाव पर वही युवक-युवती थे, जो साल भर पहले नाव चला रहे थे; पर इस बार वे विवाह के सुखद सूत्र में आबद्ध होकर आनंद मनाने निकले थे।
युवक किनारे की ओर बैठा था और युवती नाव के बीच में रूपहला शाल ओढ़े और सिर पर लाल मौर लगाये बिना पालों के मस्तूल के सहारे टिकी हुई गुनगुना रही थी... बुढ़िया का झोपड़ा पीछे रह गया। नाव आगे बढ़ आई।
युवती ने मदभरी कनखियों से युवक को देखा ओर फिर उसके विशाल नेत्र आकाश की ओर उठ गए। वह गाने लगी...
बादल उड़े जा रहे थे-मस्तूल के सहारे खड़ी वह झूम-झूमकर गा रही थी-मस्त होकर...
एक विजयोल्लास के मधुर सुखसे तंत्रित संगीत नदी की लहरों में रल गया और नीरव निशि में गूंज उठा...!

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