History of Srirangam Temple In Hindi
श्रीरंगम मंदिर का इतिहास - History of Srirangam Temple In Hindi
श्री रंगनाथस्वामी मंदिर भगवान रंगनाथ को समर्पित एक हिंदू मंदिर है। भगवान रंगनाथ को श्री विष्णु का ही अवतार माना जाता है। यह मंदिर भारत के तमिलनाडु राज्य के तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम में स्थित है इसलिए इसे श्रीरंगम मंदिर भी कहा जाता हैं। श्रीरंगम मंदिर तमिलनाडु में बहने वाली पावन नदी, कावेरी नदी से एक ओर से घिरा है और वहीं दूसरी तरफ से कोलिदम (कोलेरून) से घिरा हुआ है।
दक्षिण भारत का यह सबसे शानदार वैष्णव मंदिर है, जो किंवदंती और इतिहास दोनों में समृद्ध है। यह मंदिर कावेरी नदी के द्वीप पर बना हुआ है।
श्रीरंगम मंदिर का इतिहास - History of Srirangam Temple In Hindi
दक्षिण भारत का यह सबसे शानदार वैष्णव मंदिर है, जो किंवदंती और इतिहास दोनों में समृद्ध है। यह मंदिर कावेरी नदी के द्वीप पर बना हुआ है। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार को राजा गोपुरम का नाम दिया गया है, जो 13 प्रतिशत के क्षेत्रफल में बना हुआ है और 239.501 फीट ऊँचा है।
तमिल मर्गाज्ही (दिसम्बर-जनवरी) माह में यहाँ हर साल 21 दिन के महोत्सव का आयोजन किया जाता है, जिसमे 1 मिलियन से भी ज्यादा श्रद्धालु आते है।
श्रीरंगम मंदिर को विश्व के सबसे विशाल हिंदू मंदिरों में भी शामिल किया गया है। मंदिर 156 एकर (6,31,000 मीटर वर्ग) में 4116 मीटर (10,710 फीट) की परिधि के साथ फैला हुआ है, जो इसे भारत का सबसे बड़ा मंदिर बनाता है।
भारत का सबसे बड़ा मंदिर होने के साथ-साथ यह दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मंदिरों में से भी एक है।
मंदिर से जुड़े हुए पुरातात्विक शिलालेख हमें 10 वी शताब्दी में ही दिखाई देते है। मंदिर में दिखने वाले शिलालेख चोला, पंड्या, होयसला और विजयनगर साम्राज्य से संबंधित है, जिन्होंने तिरुचिरापल्ली जिले पर शासन किया था।
मंदिर का इतिहास हमें 9 वी से 16 वी शताब्दी के बीच का दिखाई देता है और मंदिर से जुड़ा हुआ पुरातात्विक समाज भी हमें इसके आस-पास दिखाई देता है।
रंगनाथन की प्रतिमा पहले जहाँ स्थापित की गयी थी, वहाँ बाद में जंगल बन चूका था। इसके कुछ समय बाद चोला राजा जब शिकार करने के लिए तोते का पीछा कर रहे थे तब उन्होंने अचानक से भगवान की प्रतिमा मिल गयी।
इसके बाद राजा ने रंगनाथस्वामी मंदिर परिसर को विकसित कर दुनिया के सबसे विशाल मंदिरों में से एक बनाया।
इतिहासकारों के अनुसार, जिन साम्राज्यों ने दक्षिण भारत में राज किया (मुख्यतः चोला, पंड्या, होयसला और नायक), वे समय-समय पर मंदिर का नवीकरण भी करते रहते और उन्होंने तमिल वास्तुकला के आधार पर ही मंदिर का निर्माण करवाया था।
इन साम्राज्यों के बीच हुए आंतरिक विवाद के समय भी शासको ने मंदिर की सुरक्षा और इसके नवीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया था। कहा जाता है की चोला राजा ने मंदिर को सर्प सोफे उपहार स्वरुप दिए थे।
कुछ इतिहासकारों ने राजा का नाम राजमहेंद्र चोला बताया, जो राजेन्द्र चोला द्वितीय के सुपुत्र थे। लेकिन यह बात भी बहुत रोचक है की बाद के शिलालेखो में हमें इनका उल्लेख कही भी दिखाई नही देता। ना ही चौथी शताब्दी में हमें इनका उल्लेख दिखाई देता है और ना ही नौवी शताब्दी में।
1310 से 1311 में जब मलिक काफूर ने साम्राज्य पर आक्रमण किया, तब उन्होंने देवताओ की मूर्ति भी चुरा ली और वे उन्हें दिल्ली लेकर चले गए।
इस साहसी शोषण में श्रीरंगम के सभी भक्त दिल्ली निकल गए और मंदिर का इतिहास बताकर उन्होंने सम्राट को मंत्रमुग्ध किया। उनकी प्रतिभा को देखकर सम्राट काफी खुश हो गए और उन्होंने उपहार स्वरुप श्रीरंगम की प्रतिमा दे दी। इसके बाद धीरे-धीरे समय भी बदलता गया।
हिन्दू मान्यता के अनुसार श्री रंगनाथन भगवान विष्णु का ही अवतार हैं। एक प्रचलित कथा के अनुसार वैदिक काल में गोदावरी नदी के तट पर गौतम ऋषि का आश्रम था। उस समय अन्य क्षेत्रों में जल की काफी कमी थी। एक दिन जल की तलाश में कुछ ऋषि गौतम ऋषि के आश्रम जा पहुंचे।
अपने यथाशक्ति अनुसार गौतम ऋषि ने उनका आदर सत्कार कर उन्हें भोजन कराया। परंतु ऋषियों को उनसे ईर्ष्या होने लगी। उर्वरक भूमि की लालच में ऋषियों ने मिलकर छल द्वारा गौतम ऋषि पर गौ हत्या का आरोप लगा दिया तथा उनकी सम्पूर्ण भूमि हथिया ली।
इसके बाद गौतम ऋषि ने श्रीरंगम जाकर श्री रंगनाथ की आराधना की और उनकी सेवा की। गौतम ऋषि के सेवा से प्रसन्न होकर श्री रंगनाथ ने उन्हें दर्शन दिया और पूरा क्षेत्र उनके नाम कर दिया। माना जाता है कि गौतम ऋषि के आग्रह पर स्वयं ब्रह्मा जी ने इस मंदिर का निर्माण किया था।
श्रीरंगम मंदिर उत्सव –
मंदिर में हर साल एक वार्षिक उत्सव मनाया जाता है। उत्सव के समय देवी-देवताओ की मूर्तियों को गहनों से सुशोभित भी किया जाता है। स्थानिक लोग धूम-धाम से इस उत्सव को मनाते है।
वैकुण्ठ एकादशी –
तमिल मर्गाज्ही माह (दिसम्बर-जनवरी) में पागल पथु (10 दिन) और रा पथु (10 दिन) नाम का 20 दिनों तक चलने वाला उत्सव मनाया जाता है।
जिसके पहले 10 दिन पागल-पथु (10 दिन) उत्सव को मनाया जाता है और अगले 10 दिनों तक रा पथु नाम का उत्सव मनाया जाता है। रा पथु के पहले दिन वैकुण्ठ एकादशी मनायी जाती है। तमिल कैलेंडर में इस उत्सव की ग्यारहवी रात को एकादशी भी कहा जाता है, लेकिन सबसे पवित्र एकादशी वैकुण्ठ एकादशी को ही माना जाता है।
श्रीरंगम मंदिर ब्रह्मोत्सव –
ब्रह्मोत्सव का आयोजन तमिल माह पंगुनी (मार्च-अप्रैल) में किया जाता है। अंकुरपुराण, रक्षाबंधन, भेरीराथान, ध्रजरोहन और यागसला जैसी पूर्व तैयारियां उत्सव के पहले की जाती है। श्याम में चित्राई सड़क पर उत्सव का आयोजन किया जाता है।
उत्सव के दुसरे ही दिन, देवता की प्रतिमा को मंदिर में गार्डन के भीतर ले जाया जाता है। इसके बाद कावेरी नदी से होते हुए देवताओ को तीसरे दिन जियार्पुरम ले जाया जाता है।
स्वर्ण आभूषण उत्सव –
मंदिर में मनाये जाने वाले वार्षिक स्वर्ण आभूषण उत्सव को ज्येष्ठाभिषेक के नाम से जाना जाता है, जो तमिल माह आनी (जून-जुलाई) के समय में मनाया जाता है।
इस उत्सव में देवता की प्रतिमाओ को सोने और चाँदी के भगोनो में पानी लेकर डुबोया जाता है।
साथ ही मंदिर में पौराणिक गज-गृह घटनाओ के आधार पर चैत्र पूर्णिमा का भी आयोजन किया जाता है। इस कथा के अनुसार एक हाथी मगरमच्छ के जबड़े में फस जाता है और भगवान रंगनाथ ही उनकी सहायता करते है।
इसके साथ-साथ मंदिर में वसंतोत्सव का भी आयोजन तमिल माह वैकासी (मई-जून) में किया जाता है, सूत्रों के अनुसार इसका आयोजन 1444 AD से किया जा रहा है।
ज्येष्ठाभिषेक, श्री जयंती, पवित्रोत्सव, थाईपुसम, वैकुण्ठ एकदशी और वसंतोत्सव आदि इस मंदिर में मनाये जाने वाले प्रमुख त्यौहारो में से एक है। वर्ष में केवल एक बार वैकुण्ठ एकदशी के दिन ही यहाँ वैकुण्ठ लोग उर्फ़ स्वर्ग के द्वार खोले जाते है।
ऐसा माना जाता है की इस दिन परमपद वासल में प्रविष्ट होने वाला इंसान मोक्ष प्राप्त करके वैकुण्ठ धाम जाता है। मंदिर में वैकुण्ठ एकदशी के दिन ही सबसे ज्यादा भीड़ होती है।
शुक्ल पक्ष सप्तमी के दिन रंगनाथ मंदिर में हर साल रंग जयंती का आयोजन किया जाता है। रंगनाथ स्वामी के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाने वाला यह उत्सव पूरे आठ दिन तक चलता है। माना जाता है कि इस पवित्र स्थान पर बहने वाली कावेरी नदी में कृष्ण दशमी के दिन स्नान करने से व्यक्ति को अष्ट-तीर्थ करने के बराबर का पुण्य प्राप्त होता है।
कैसे पहुंचा जाये:
सड़क मार्ग द्वारा: आंध्र प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों से नेल्लोर के लिए बसें उपलब्ध हैं जो मंदिर से 3 किमी दूर है। स्थानीय बसें मंदिर तक पहुंचने के लिए उपलब्ध हैं।
रेल द्वारा: निकटतम रेलवे स्टेशन नेल्लोर रेलवे स्टेशन है जो 4 किमी दूर है। मंदिर जाने के लिए बस सेवाएं उपलब्ध हैं।
वायु द्वारा: निकटतम हवाई अड्डा तिरुपति हवाई अड्डा है जो 127 किमी दूर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए बस और टैक्सी सेवाएं उपलब्ध हैं।