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Ek Nanhi Si Khushi

एक नन्हीं सी खुशी , Ek Nanhi Si Khushi , A Little Joy

अभी अभी एक छोटी सी खुशी याद आई,वही आप सबों के साथ बांट रही हूं।दुख और निराशा बहुत लिपि बद्ध किया अब प्रयास है खुशियां ही चुनूं।
करीबन चार माह पहले गर्मी की शाम, मैं अपनी अलमारी में रखी साड़ियों को सहेज रही थी।आदतन गर्मी के मौसम के अनुकूल साड़ियां अलग और बाकी अलग व्यवस्थित रख रही थी। 
         
तभी अचानक ध्यान आया कि मेरा ये संकलन मेरे बाद किसी के काम का नहीं है,इनकी तो बेकदरी ही होगी।बस क्या था कुछ हताशा और निराशा मन में आ गई। लगा कि अभी ऐसा क्या करूं कि सार्थक हो जाएं ये सब।तभी दैवीय   कृपा से एक विचार कौंधा क्यूं न कुछ हटकर करूं, कुछ सार्थक सा।
साड़ियां तो जब जैसा हुआ दे ही देती थी।मुझे अपनी छोटी बहन जो एक ग्रामीण सरकारी शाला में वरिष्ठ शिक्षिका हैं और एक भतीजी जो एक सरकारी चिकित्सालय में कार्यरत हैं कि बात याद आई।वो दोनों अलग अलग समय पर मुझसे बोली की आज भी विपन्नता की मार इतनी है कि नन्हीं नन्हीं बच्चियों को भी पूरे कपड़े नहीं है पहनने को सामान्यतः।
जब कोई गरीब महिला जचकी के लिए चिकित्सालय आती है तो उनके पास अपने ही नवजात के लिए कोई कपड़ा नहीं होता,तीन दिन अस्पताल के कपड़ों में कट जाने के बाद,? यदि साथ में कोई बच्ची/बच्चा है तो वह भी एक कपड़े में, उसके लिए दूसरा कपड़ा बदलने के लिए भी नहीं है।ये तो कल्पना ही वेदना भरी है। (एक नन्हीं सी खुशी , Ek Nanhi Si Khushi , A Little Joy)
यदि मैं अपने सीमित साधनों में दो चार की ही सहायता कर सकूं तो बचा जीवन सार्थक हो जाएगा।तभी तह करती साड़ियों में से कुछ निकालकर अलग रख लीं।
पड़ोस में एक भाभी जी सिलाई का काम करती हैं से बात की,क्या वे इन साड़ियों से कुछ फ्रॉक सिल देंगी। सादी सी ही सही ,छोटी बड़ी,(नवजात से दो तीनवर्ष तक की)
वे इस नेक काम में सहृदय तैयार हो गईं।उनके सहयोग से मैं कुछ फ्रॉक की प्रथम खेप पहुंचाने में सफल हुई।
जब बांटने वाली बिटिया को दीं तो वो गदगद हो गई बोली मैं अपनी खुशी आपको बता नहीं सकती कितना बड़ा काम हुआ।मुझे उसके चेहरे की
संतुष्टि में उन अनजान नन्हीं मासूम बालिकाओं की मुस्कान  और उनकी मांओं का आभार दिखा। वो स्वयं अपने सीमित साधनों के बाद भी अनवरत कुछ न कुछ सेवार्थ करती रहती है।ये दोनों।ही मेरी प्रेरणास्रोत बनी।
पहला प्रयास सफल हुआ  आगे भी क्रमशः जारी रखने का प्रयास रहेगा।
हमेशा नए कपड़े नहीं दे पाते। कुछ अड़चने साधनों की होती हैं।पर अपनी जरूरत से ज्यादा हो तो देने में पूरी सहजता होती है।व्यर्थ का गरूर भी नहीं हो पाता स्वयं के लिए। 
कुछ इसी तरह के छोटे छोटे संकल्पों को पूरा करने की इच्छा है इस बचे हुए जीवन में।अपने इस किंचित प्रयास से कुछ नन्हीं मुस्कान  वापस ला सकूं मैं अपनी संतुष्टि के लिए।

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