Bhikaiji Cama मैडम भीकाजी कामा का जन्म बम्बई के एक सम्पन्न पारसी परिवार में 24 सितम्बर 1861 को श्रीमती कामा का जन्म हुआ था | उनके पिता का नाम सोराबजी पटेल और माँ का नाम जयबाई सोराबजी पटेल थी |वो श्री सोराबजी पटेल की नौ संतानों में से एक थी | सोराबजी पटेल ने वैसे तो वकील की शिक्षा ली थी लेकिन वो व्यापार किया करते थे | सोराबजी पटेल पारसी समुदाय के प्रभावशाली सदस्य थे | दुसरी लडकियों की तरह भिकाजी को भी Alexandra Native Girl’s English Institution में दाखिला दिलवाया गया |
अंग्रेजी स्कूल में पढने के बावजूद भी उनके मन में हमेशा अपने देश के लिए लिय बहुत प्रेम था | उन्हें बचपन से ही भारतीयों की अपमानजनक जिन्दगी असहनीय थी और उन्हें भारत के लोगो की गरीबी देखी नही जाती थी | 3 अगस्त 1885 में भिकाजी कामा का विवाह रुस्तम कामा से हो गया | Bhikaiji Cama भिकाजी कामा के पति एक सम्पन्न परिवार से थे और पेशे से वकील थे और राजनीती में आने की इच्छा रखते थे | हालंकि उनका वैवाहिक जीवन सुखी नही बीता था और वो अपना अक्सर समय सामजिक कार्यो में लगाती थी |
Activism in Politics
किशोरावस्था में ही Bhikaiji Cama भीका का ध्यान राजनीति की ओर आकर्षित हुआ | सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद जब कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन हुआ तब उनकी अवस्था केवल 24 वर्ष की थी | नेताओ के उग्र भाषणों और जोरदार अपीलों से वे इतनी प्रभावित हुयी कि तभी से एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कार्य करने लगी | जांत पांत , धर्म -सम्प्रदाय के भेदभाव भुलाकर उन्होंने सबसे पहले सभी तरह की स्त्रियों और महिला संस्थानों के संघठन का बीड़ा उठाया |
निर्धन और अभावग्रस्त महिलाओ में समाज के कल्याण कार्य के अरिरिक्त उनका विशेष कार्य उन महिलाओ को अपनी दुर्दशा के प्रति सचेत करना और उनमे जागृति का शंख फूंकना था | विदेशी राज्य के अत्याचारों के खिलाफ खड़े होने के लिए उन्होंने सभी को ललकारा और उनके सोये आत्माभिमान को जगाया | एक बार जब वो काफी बीमार हो गयी थी तब उनको इलाज के लिए 1901 में ब्रिटेन भेजा गया | जब वो स्वास्थ्य होकर 1908 में भारत लौटने वाली थी उन्ही दिनों इंग्लैंड में उनकी भेंट प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा से हो गयी |
श्याम जी के ओजस्वी भाषणों से उनकी सुशुप्त भावनाओं ने जागकर फिर इतना जोर मारा की भारत लौटने का निश्चय छोडकर उन्होंने वही पर स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया | वो श्री श्याम वर्मा के साथ Hyde Park में अपने जोशीले भाषणों से स्वत्न्र्ता के नारा बुलंद करने लगी थी | अंग्रेज आश्चर्यचकित हो गये की भारत जैसे गुलाम देश की एक महिला अपने शाशको के देश में इस तरह सरेआम विद्रोही प्रसार कैसे कर सकती है | India Office के अधिकारियों ने कामाँ के क्रांतिकारी कार्यो को देखते हुए उन्हें वापस भारत लौटने की सलाह दी क्योंकि उनके विद्रोह से उनके खिलाफ करवाई हो सकती है लेकिन कामा ने उनकी बातो को सुने बिना आन्दोलन ओर तेज कर दिया |
जब Bhikaiji Cama कामा को गुप्त रूप से खबर मिली कि उनके खिलाफ कठोर कारवाई की जा सकती है तो वो इंग्लिश चैनल के रस्ते फ़्रांस पहुच हुई और फिर उन्होंने पेरिस में अपना कार्यस्थल बना लिया | पेरिस में उनका घर क्रांतिकारीयो का मुख्य आश्रय था और यहा पर भारत ,फ़्रांस और रूस के सभी भूमिगत क्रांतिकारी शरण पाते थे | ब्रिटिश अधिकारियो ने उनकी गतिविधियों से आतंकित होकर उनके भारत प्रवेश पर रोक लगा द थी इसलिए मैडम कामा 35 वर्ष तक पेरिस में ही रही | अंग्रेज अधिकारियो ने फ़्रांस सरकार से उनके प्रत्यर्पण की कई बार कोशिश की लेकिन नाकाम रहे | यदि फ़्रांस द्वारा उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाता तो उन्हें अवश्य मार दिया जाता |
इस तरह फ़्रांस सरकार से सुरक्षा का आश्वासन पाकर उन्होंने “वन्दे मातरम ” पत्र का प्रकाशन आरम्भ कर दिया था | फ़्रांस सरकार इस प्रकाशन से किसी तरह उलझन में ना पड़े ,इसलिए उसका प्रकाशन जेनेवा से किया गया | यह क्रांतिकारी पत्र नौ वर्ष तक विदेशो में भारतीय स्वतंत्रता की अलख जगाता रहा | उनकी सबसे ज्यादा स्मरणीय दन है “भारतीय तिरंगा झंडा “| भारतीय स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे झंडे का नमूना श्रीमती कामा द्वारा ही भारत से बाहर तैयार किया गया | इसके पीछे भी एक कहानी है |
18 अगस्त 1907 को जर्मनी में विश्व साम्राज्यवादियों का एक विशाल सम्मेलन हुआ जिसमे 1000 से भी ज्यादा प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे | उस सम्मेलन में श्रीमती कामा को ना केवल आमंत्रित किया गया बल्कि सम्मेलन के नेता ने उनका परिचय “फ्रेटरनल डेलिगेट ” के रूप में दिया था | श्रीमती कामा ने इस सम्मेलन में अपने तूफानी भाषण से श्रोताओ का हृदय जीत लिया था जिसके कारण उन्हें भारी भीड़ बधाई देने उमड़ पड़ी थी | इसी बीच उन्होंने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे भारतीय स्वतंत्रता के झंडे के रूप में गर्व से लहरा दिया और कहा ” ये है मेरे राष्ट्र का पताका ” |Bhikaiji Cama श्रीमती कामा के कार्यो से प्रभावित होकर स्वयं लेनिन ने उन्हें रूस आने के कई निमन्त्रण दिए थे लेकिन किन्ही कारणों से वो नही जा सकी |
Madama Bhikaji Cama Death
35 वर्ष तक भारत से निष्कासित रहकर निरंतर कम में जुटी रहने वाली इस निर्भीक महिला की वृधावस्था में स्वदेश लौटने की इच्छा इतनी प्रबल हो उठी राजनीती में भाग ना लेने की ब्रिटिश सरकार की शर्त पर उन्होंने यह सोचकर स्वीकृति दे दी कि वो अब काम करने लायक नही रह गयी थी | नवम्बर 1935 में बम्बई पहुचने पर स्ट्रेचर और एम्बुलेंस द्वारा सीधा उन्हें अस्पताल पहुचाया गया जहा आठ महीने बाद 13 अगस्त 1936 को स्वर्गवास हो गया था | उनके अंतिम शब्द थे “वन्दे मातरम्”
19वी सदी में जबकि अंग्रेजो की शक्ति भारत और इंग्लैंड में ही नही , सारे संसार में बढी चढी थी और जब भारतीय पुरुष खुलकर ऐसे आंदोलनों में भाग लेने से डरते थे एक नारी का इतना महान और साहसी कार्य सचमुच अद्भुत प्रेरणा और शक्ति प्रदान करता है |