विदेशो में भटकते हुए ,अनेक कष्ट सहकर देशभक्तों की जमात खडी करने वाले लाला हरदयाल (Lala Har Dayal) का जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में हुआ था | छात्र के रूप में उन्होंने दिल्ली और लाहौर में उच्च शिक्षा प्राप्त की | देशभक्त की भावना उनके अंदर छात्र जीवन से ही थी | मास्टर अमीर चंद , भाई बाल मुकुंद आदि के साथ उन्होंने दिल्ली में भी युवको के एक दल का गठन किया था | लाहौर में उनके दल में लाला लाजपत राय आदि युवक सम्मिलित थे | एम.ए. की परीक्षा में सम्मानपूर्ण स्थान पाने के कारण उन्हें पंजाब सरकार की छात्रुवृति मिली और वे अध्ययन के लिए लन्दन चले गये |
लन्दन में लाला हरदयाल (Lala Har Dayal) , भाई परमानन्द , श्याम कृष्ण वर्मा आदि के सम्पर्क में आये | अब उन्हें अंग्रेज सरकार की छात्रुवृति पर शिक्षा प्राप्त करना स्वीकार नही था | उन्होंने श्याम जी कृष्ण वर्मा के सहयोग से “पोलिटिकल मिशनरी” नाम की एक संस्था बनाई | इसके द्वारा भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न करते रहे | दो वर्ष उन्होंने लन्दन के जेम्स जोंस कॉलेज में बिठाये और फिर भारत वापस आ गये |
अपनी ससुराल पटियाला , दिल्ली होते हुए वे लाहौर पहुचे और “पंजाब” नामक अंग्रेजी पत्र के सम्पादक बन गये | उनका प्रभाव बढ़ता देखकर सरकारी हलको में जब उनकी गिरफ्तारी की चर्चा होनी लगी तो लाला लाजपत राय ने आग्रह करके उन्हें विदेश भेज दिया | वे पेरिस पहुचे | श्यामजी कृष्ण वर्मा और भीकाजी वहा पहले से थे | लाला हरदयाल (Lala Har Dayal) ने वहा जाकर “वन्दे मातरम्” और “तलवार” नामक पत्रों का सम्पादन किया |
1910 में हरदयाल (Lala Har Dayal) सेन फ्रांसिस्को (अमेरिका) पहुचे | वहा उन्होंने भारत से गये मजदूरों को संगठित किया | “गदर” नामक पत्र निकाला | इसी के आधार पर पार्टी का नाम भी “गदर पार्टी” रखा गया | “गदर” पत्र ने संसार का ध्यान भारत में अंग्रेजो द्वारा किये जा रहे अत्याचारों की ओर दिलाया | नई पार्टी की कनाडा , चीन , जापान आदि में शाखाए खोली गयी | हरदयाल (Lala Har Dayal) इसके महासचिव थे |
प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर लाला हरदयाल ने भारत ने सशस्त्र क्रान्ति को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाये | जून 1915 में जर्मनी से दो जहाजो में भरकर बंदूके बंगाल भेजी गयी ,परन्तु मुखबिरों की सुचना पर दोनों जहाज जब्त कर लिए गये | हरदयाल (Lala Har Dayal) ने भारत के पक्ष का प्रचार करने के लिए स्विटजरलैंड , तुर्की आदि देशो की भी यात्रा की | जर्मनी ने उन्हें कुछ समय तक नजरबंद भी कर लिया गया था | वहा से वे स्वीडन चले गये उन्होंने अपने जीवन के 15 वर्ष बिताये |
अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कही से सहयोग मिलने पर वे शांतिवाद का प्रचार करने लगे | इस विषय पर व्याख्यान देने के लिए वे फिलाडल्फिया गये थे | वे 1939 में भारत आने के लिए उत्सुक थे | उन्होंने अपनी पुत्री का मुंह भी नही देखा जो उनके देश छोड़ने के बाद पैदा हुयी थी पर यह हो न सका | भारत में उनके आवास की व्यवस्था हो चुकी थी पर देश की आजादी का यह फकीर 4 मार्च 1939 को कुर्सी में बैठा-बैठा विदेश में ही सदा के लिए सो गया |