भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर नामक शहर के खिरलीबाग़ मुहल्ले में हुआ था | इनके माता का नाम मूलमती और पिता का नाम प.मुरलीधर था | दोनों हाथ दसो उंगलियो के चक्र के निशाँ देखकर एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी की थी | यदि इस बाल का जीवन किसी प्रकार बचा रहा यधपि सम्भावना बहुत कम है तो इसे चक्रवती सम्राट बनने से दुनिया की कोई ताकत नही रोक पायेगी | माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह जैसा शावक जैसा लगता था | अत: ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर र से निकलने वाला नामा रखने का सुझाव दिया |
माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे अत: रामप्रसाद नाम रखा गया | माँ तो सदैव यही कहती थी कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिए था सो राम ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर प्रसाद के रूप में यह पुत्र दे दिया | बालक को घर के सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे | मुरलीधर के कुल 9 संताने हुयी जिनमे पांच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे | रामप्रसाद उनकी दुसरी सन्तान थे | आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रो का भी देहांत हो गया |
रामप्रसाद (Ram Prasad Bismil) बाल्यकाल से काफी शरारती थे और इनमे अनेक अवगुण भरे पड़े थे | अत: उनका मन खेलने में अधिक किन्तु पढने में कम लगता था जिसके कारण उसके पिताजी तो उसकी खूब पिटाई लगाई लगाते परन्तु माँ हमेशा उसे प्यार से ही समझाती कि बेटा राम ये बहुत बुरी बात है मत किया करो | इस प्यार भरी सीख का उसके मन पर कही न कही प्रभाव अवश्य पड़ता | उसके पिता ने पहले हिंदी अक्षर बोध कराया किन्तु उ से उल्लू न तो उसने पढना सीखा और न ही लिखकर दिखाया | क्योंकि उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढाया जाता था जिसका वह विरोध करत आहत और बदले में पिता की मार खाता था | हार कर उसे उर्दू के स्कुल में भर्ती करा दिया गया | शायद उसके यही प्राकृतिक गुण रामप्रसाद को एक क्रांतिकारी बना पाए अर्थात वह अपने विचारों में जन्म से ही पक्का था |
रामप्रसाद (Ram Prasad Bismil) ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढना आरम्भ किया | साथ ही पडोस के के पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया | पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे जिनके व्यकित्त्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर दिखाई देने लगा | पुजारी के उपदेशो के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचार्य का पालन करने लगा | पुजारी की देखा देखी उसने व्यायाम भी प्रारम्भ कर दिया | पूर्व में जितनी भी कुभावनाए एवं बुरी आदते मन में थी छुट गयी |
अब तो रामप्रसाद (Ram Prasad Bismil) का पढाई में भे मन लगनी लगा और वह बहुत शीघ्र ही अंग्रेजी के पांचवे दर्जे में आ गया | रामप्रसाद में अप्रत्याक्षित परिवर्तन हो चूका था | शरीर सुंदर एवं बलिष्ट हो गया था | नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था तभी वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इंद्रजीत के सम्पर्क में आया जिन्होंने रामप्रसाद को आर्य समाज के संबध में बताया एवं सत्यार्थ प्रकाश पढने का विशेष आग्रह किया | सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा |
एक ओर सत्यार्थ प्रकाश का गम्भीर अध्ययन एवं दसूरी ओर समाई सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा ने उनमे मन में देश प्रेम की भावना जागृत हुयी | सन 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष प. जगत नारायाण मुल्ला के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पुरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवको का ध्यान उनकी ओर दृढ़ता की ओर गया | अधिवेशन के दौरान उनका परिचय केशव चक्रवती सोमदेव शर्मा एवं मुकुन्दीलाल आदि से हुआ |
बाद में उन्ही सोमदेव शर्मा ने किन्ही सिद्धिगोपाल शुक्ल के साथ मिलकर नगरी साहित्य पुस्तकालय , कानपुर से एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसका शीर्षक रखा गया था अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास | यह पुस्तक बाबू गणेशप्रसाद के प्रबंध से कुर्मी प्रेस , लखनऊ में सन 1916 में प्रकाशित हुयी थी | रामप्रसाद ने यह पुस्तक अपनी माताजी से दो बार दो-दो सौ रूपये लेकर प्रकाशित की थी | इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है | यह पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गयी थी बाद में जब काकोरी काण्ड का अभियोग चला तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गयी थी |
सन 1915 में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद (Ram Prasad Bismil) ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे 1916 में एक पुस्तक छपकर आ चुकी थी कुछ नवयुवक उनसे जुड़ चुके थे स्वामी सोमदेव का आशीर्वाद भी उन्हें प्राप्त हो चूका था | अब तलाश थी तो एक संघठन की जो उन्होंने पं,गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में मातृदेवी के नाम से खुद खड़ा कर लिया था | इस संघठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गयी | दल के लिए धन एकत्र करने के उद्देश्य से रामप्रसाद ने जो अब तक बिस्मिल के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे 26 से 31 दिसम्बर 1918 तक दिल्ली में लाला किले के सामने हुए कांग्रेस अधिवेशन के इस संघठन के नवयुवको ने चिल्ला-चिल्ला कर जैसे ही पुस्तके बेचना शुरू किया कि पुलिस ने छापा डाला किन्तु बिस्मिल की सूझ-बुझ से सभी पुस्तके बच गयी |
मैंनपुरी षडयंत्र में शाहजहांपुर से 6 युवक शामिल हुए थे जिनके नेता रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) थे किन्तु वे पुलिस के साथ नही आये तत्काल फरार हो गये | 01 नवम्बर 1919 को मजिस्ट्रेट बी.एस.क्रिस ने मैनपुरी षडयंत्र का फैसला सुना दिया | जिन जिन को सजाये हुयी उनमें मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को फरवरी 1920 में आम माफी के ऐलान में छोड़ दिया गया | बिस्मिल पुरे 2 वर्ष भूमिगत रहे | उनके दल के ही कुछ साथियो ने शाहजहां पुर में जाकर यह अफवाह फैला दी कि भाई रामप्रसाद तो पुलिस की गोली से मारे गये जबकि सच्चाई यह थी कि वे पुलिस मुठभेड़ के दौरान यमुना में छलांग लगाकर पानी के अंदर ही अंदर योगाभ्स्यास की शक्ति से तैरते हुए मीलो दूर आगे जाकर नदी से बाहर निकले , जहां आज ग्रेटर नोयडा आबाद हो चूका है वहा के निर्जन बीहड़ो में चले गये जहां उन दिनों केवल बबूल के ही वृक्ष हुआ करते थे |
रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) ने ग्रेटर नोइडा के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर के निर्जन जंगलो में घूमते हुए गाँव के गुर्जर लोगो की गाय भैंस चराई | इसका बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा के द्वितीय खंड स्वदेश प्रेम में किया है | यही रहकर उन्होंने अपना क्रांतिकारी उपन्यास बोल्शेविको की करतूत लिखा | वस्तुत: यह उपन्यास मूलरूप से बांगला भाषा में लिखित पुस्तक निहिलिस्ट रहस्य का हिंदी अनुवाद है जिसकी भाषा और शैली दोनों ही बड़ी रोचक है | अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बांग्ला पुस्तक यौगिक साधन का हिंदी अनुवाद भी उन्होंने ही किया था | यमुना किनारे की खादर जमीन उन दिनों पुलिस से बचने के लिए सुरक्षित समझी जाती थी अत: बिस्मिल ने उस निरापद स्थान का भरपूर उपयोग किया | वर्तमान समय में यह गाँव चूँकि ग्रेटर नॉएडा के बीटा वन सेक्टर के अंतर्गत आता है अत: उत्तर प्रदेश सरकार ने रामपुर जागीर गाँव के वन विभाग की जमीन पर उनकी स्मृति में अमर शहीद प.रामप्रसाद बिस्मिल उद्यान विकसित कर दिया है जिसकी देखरेख ग्रेटर नॉएडा प्रशासन के वित्त पोषण से प्रदेश का वन विभाग करता है |
सितम्बर 1920 में वे कलकत्ता कांग्रेस में शाहजहाँपुर कांग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए | कलकत्ते में उनकी भेंट लाला लाजपतरॉय से हुयी | उन्होंने उनका परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशको से करा दिया था जिनमे एक उमादत्त शर्मा भी थे जिन्होंने आगे चलकर सन 1922 में रामप्रसाद बिस्मिल की एक पुस्तक कैथेराइन छापी थी | सन 1921 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में रामप्रसाद बिस्मिल ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी का खुलकर समर्थन किया और अन्तोत्ग्त्वा गांधीजी से असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित करवा कर ही माने | इस कारण वे युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गये | समूचे देश में असहयोग आन्दोलन शुरू करने में शाहजहाँपुर के स्वयंसेवकों की अहम भूमिका थी |
03 अक्टूबर १९२४ को इस पार्टी (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) की एक कार्यकारिणी बैठक कानपुर में की गयी जिसमे शचीन्द्रनाथ सान्याल , योगेश चन्द्र चटर्जी एवं रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए | इस बैठक में पार्टी का नेतृत्व बिस्मिल को सौंपकर सान्याल एवं चटर्जी बंगाल चले गये | पार्टी के लिए फंड एकत्र करने में कठिनाई को देखते हुए आयरलैंड के क्रान्तिकारियो का तरीका अपनाया गया और पार्टी की ओर से पहली डकैती 25 दिसम्बर 1924 (क्रिसमस डे की रात) को बमरौली में डाली गयी जिसका कुशल नेतृत्व बिस्मिल ने किया था |
क्रांतिकारी पार्टी की ओर से 1 जनवरी 1925 को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित एवं 28 से 31 जनवरी के बीच समूचे हिन्दुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित 4 पृष्ट के पेम्पलेट The Revolutionary में रामप्रसाद बिस्मिल ने विजय कुमार के छद्म नाम से अपने दल की विचारधारा का लिखित रूप में खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रांतिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार बदलाव करना चाहते है और इसके लिए वे क्या क्या कर सकते है ? केवल इतना ही नही उन्होंने गांधीजी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न किया था कि जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक कहता है वह अंग्रेजो से खुलकर बात करने में डरता क्यों है ? उन्होंने हिन्दुस्तान के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेशी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए उनकी क्रांतिकारी पार्टी में शामिल होकर अंग्रेजो से टक्कर लेने का खुला आह्वान किया था | The Revolutionary के नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित इस घोषणापत्र में क्रान्तिकारियो के वैचारिक चिन्तन को भली भाँती समझा जा सकता है |
The Revolutionary नाम से प्रकाशित इस 4 पृष्टीय घोषणापत्र लप देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगे | संयोग से शचीन्द्रनाथ सान्याल बांकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिए गये जब वे पेम्पलेट अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे | इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच.आर.ए. के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़े गये और उन्हें हजारीबाग़ जेल में बंद कर दिया गया | दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से रामप्रसाद बिस्मिल के कन्धो पर उत्तर प्रदेश के साथ साथ बंगाल के क्रांतिकारियों सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया | पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब ओर अधिक बढ़ गयी थी | कही से भी धन प्राप्त होता न देखकर उन्होंने 07 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनितिक डकैतिया डाली किन्तु उनमे कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका | इन दोनों डकैतियो में एक एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया | इससे ही बिस्मिल के आत्मा को अपार कष्ट हुआ |
०९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग जिसमे अशफाक़उल्ला खा , राजेन्द्र लाहिड़ी , चंद्रशेखर आजाद , शचीन्द्रनाथ बक्शी , मन्मथनाथ गुप्त , मुकुन्दीलाल , केशव चक्रवती , मुरारी शर्मा तथा बनवारीलाल शामिल थे 8 डाउन सहारनपुर -लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए | इन सबके पास पिस्तौलो के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउसर भी थे जिनके बट में कुंदा लगा लेने से वह छोटी आटोमेटिक राइफल की तरह लगता था और और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था | इन माऊसरो की क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों माउसर आज की AK47 रायफल की तरह चर्चित थी |
लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक रुक कर जैसे ही आगे बढी , क्रांतिकारियों ने चने खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने के बक्सा नीचे गिरा दिया | उसे खोलने की कोशिश की गयी जब वह नही खुला तो अशफाक़उल्ला खा ने अपना माउसर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गये | मन्मथनाथ ने उत्सकुतावश माउसर का ट्रिग्गर दबा दिया जिससे छुटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी | वह मौके पर ही ढेर हो गया | शीघ्रतावश चांदी के सिक्को एवं नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बांधकर वहा से भागने में एक चादर छुट गयी | अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पुरे संसार में फ़ैल गयी | ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और DIG के सहायक मिस्टर आर.ए.हार्टन के नेतृत्व में स्कॉटलैंड के सबसे तेज तरार पुलिस को इसकी जांच का काम सौंप दिया |
घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशाँ से इस बात का पता चला कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति के एही | शाहजहाँपुर के धोबियो से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है | बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया | बनारसीलाला को हवालात में ही पुलिस की कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया | शाहजहांपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने पार्टी फंड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चूका था और बिस्मिल ने जो उस समय जिला कांग्रेस कमेटी के ऑडिटर थे बनारसी पर पार्टी के फंड का गबन का आरोप सिद्ध करते हुए कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलम्बित कर दिया था | बाद में जब गांधीजी 16 अक्टूबर 1920 को शाहजहांपुर आये तो बनारसी ने उनसे मिलकर अपना पक्ष रखा |
गांधीजी ने इन दोनों में सुलह करा दी | बनारसी बड़ा ही धूर्त आदमी था उसने पहले बिस्मिल से माफी मांग ली | पुलिस ने स्थानीय लोगो से बिस्मिल एवं बनारसी के पिछले झगड़े का भेद जानकर बनारसी लाल को सरकारी गवाह बनाया और बिस्मिल के विरुद्ध पुरे अभियोग में अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया | बनारसी लाल व्यापार में साझीदार होने के कारण पार्टी संबधी ऐसी ऐसी गोपनीय बाते जानता था जिन्हें बिस्मिल के अतिरिक्त कोई भी न जान सकता था | इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है | लखनऊ जेल में सभी क्रान्तिकारियो को एक साथ रखा गया और उन पर मुकदमा चलाया गया |
इस एतेहासिक मुकदमे में सरकारी खर्चे से हरकरनाथ मिश्र को क्रान्तिकारियो का वकील नियुक्त किया गया जबकि जगतनारायण मुल्ला को एक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत सरकारी वकील बनाया गया जिन्होंने अपनी ओर से सभी क्रान्तिकारियो को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने में कोई कसर बाकी नही रखी | यह वही जगतनारायण थे जिनकी मर्जी के खिलाफ सन 1916 में बिस्मिल ने लोकमान्य तिलक की भव्य शोभायात्रा पुरे लखनऊ शहर में निकाली थी | इसी बात से चिढकर मैनपुरी षडयंत्र में इन्ही मुल्लाजी ने सरकारी वकील की हैसियत से जोर तो काफी लगाया परन्तु वे रामप्रसाद बिस्मिल का एक भी बाल बाँका न कर पाए थे क्योंकि मैनपुरी षडयंत्र में बिस्मिल फरार हो गये थे और पुलिस के हाथ ही नही आये |
06 अप्रैल को विशेष सेशन जज हेमिल्टन ने 115 पृष्ठ के निर्णय से प्रत्येक क्रांतिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए यह लिखा कि यह कोई साधारण डकैती नही अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को जड़ से उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है | हालांकि इनमे से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इस योजना में शामिल नही हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चाताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का कोई वचन ही दिया है अत: जो भी सजा दी गयी है सोच समझकर दी गयी है और इस हालात में उसमे किसी भी प्रकार की कोई छुट नही दी जा सकती | किन्तु इनमे से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है |
सेशन जज के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी | बिस्मिल ने चीफ कोर्ट में धाराप्रवाह अंगेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील मुल्ला जी बगले झांकते नजर आये | बिस्मिल की इस तर्क क्षमता पर चीफ जस्टिस लुईस शर्त को पूछना पड़ा (रमा प्रसाद ! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ?) इस पर उन्होंने हँसकर कहा था | क्षमा करे महोदय ! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नही होती है | अदालत ने उनके इस जवाब से चिढकर बिस्मिल की 18 जुलाई 1927 को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी | उसके बाद उन्होंने 76 पृष्ट की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेता से लिखवाई है | अन्तोत्ग्त्वा उन्ही लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी बिस्मिल को नही |
काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था | चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फ़ैल गयी | ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव कौंसिल ने काकोरी काण्ड के सभी फाँसी प्राप्त कैदियों की सजाये कम करके आजीवन कारावास में बदलने का प्रस्ताव पेश करने की सुचना दी | अंत में मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में पांच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मंडल शिमला जाकर वायसराय से मिला और उनसे प्रार्थना की कि चूँकि सभी अभियुक्तों ने लिखित रूप से सरकार को यह वचन दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अत: जजमेंट पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ़ मना कर दिया | अंतत: बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौंसिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैंड के विख्यात वकील एस.एल.पोलक के पास भिजवाये किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों एवं सम्राट ने वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दी कि इस षडयंत्र का सूत्रधार राम प्रसाद बिस्मिल बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो भविष्य में इससे भी बड़ा भयंकर काण्ड कर सकता है उस स्थिति में सरकार को हिन्दुस्तान में शासन करना असम्भव हो जायेगा | इसका परिणाम यह हुआ कि प्रिवी कौंसिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील खारिज हो गयी |
सेशन कोर्ट ने अपने फैसले में फाँसी की तारीख 16 दिसम्बर 1927 निश्चित की थी जिसे चीफ कोर्ट के निर्णय में 11 अक्टूबर 1927 प्रिवी कौंसिल से अपील रद्द होने के बाद फाँसी की नई तिथि 19 दिसम्बर 1927 की सुचना गोरखपुर जेल में बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) को दे दी गयी थी किन्तु वे इससे जरा भी विचलित नही हुए और बड़े ही निश्चिंत भाव से अपनी आत्मकथा जिसे उन्होंने निज जीवन की एक छटा नामा दिया था पुरी करने में दिन-रात डटे रहे , एक क्षण को भी न सुस्ताये और न सोये | उन्हें यह पूर्वाभास हो गया था कि बेरहम और बेहया ब्रिटिश सरकार उन्हें पुरी तरह से मिटा कर ही दम लेगी और अंत में ब्रिटिश सरकार ने इन्हें फाँसी पर लटका दिया था |
भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने में यु तो असंख्य वीरो ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु रामप्रसाद बिस्मिल एक ऐसे अद्भुद क्रांतिकारी थे जिन्होंने अत्यंत निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखंड पुरुषार्थ के बल पर हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ के नाम से देशव्यापी संघठन खड़ा किया जिसमे से एक से बढकर एक तेजस्वी और मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे |