बांके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण 1864 में स्वामी हरिदास ने करवाया था।
श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नहीं चाहेगा। यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया।
मंदिर का इतिहास -
पहले बिहारी जी की मूर्ति निधिवन के समीप ही स्थापित की गयी थी किन्तु बाद में इसे इसके वर्तमान स्थान पर स्थापित किया गया। वृन्दावन बांके बिहारी लाल के आधुनिक मंदिर की स्थापना लगभग 200 वर्ष पूर्व हुई थी। इस मंदिर के निर्माण के पीछे भी एक दिलचस्प कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बार बांके बिहारी जी के दर्शन करने भरतपुर के राजा अपनी रानी के साथ वृन्दावन पधारे। रानी अत्यंत सुन्दर थी, और जब उन्होंने बांके बिहारी जी की आँखों में देखा तो बिहारी जी उनके सौंदर्य पर मोहित हो गए और एक गोप का रूप धारण कर उनके साथ भरतपुर चले गए। जब मंदिर के पुजारियों ने देखा की बिहारी जी अपने स्थान पर नहीं हैं तब वे समझ गए की बिहारी जी भरतपुर जा चुके हैं। पुजारियों ने भरतपुर जाकर बिहारी जी को बहुत मनाया तब जाकर वे वापस आने के लिए तैयार हुए। और उन्हें राजा और रानी दोनों ही वृन्दावन छोड़ने के लिए आये। तब राजा ने कहा की वह यह पर बांके बिहारी का भव्य मंदिर बनवाना चाहते हैं और यह कार्य उन्होंने अपने पुत्र रतनसिंह को सौंप दिया। राजकुमार ने वृन्दावन में ही रह कर इसके भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। और इसका कार्य 1865 ईसवी में पूरा हुआ था।
बांके बिहारी मंदिर की पौराणिक कथा -
श्री हरिदास जी वैष्णव समाज के थे, वह एक प्रसिद्द संगीतकार भी थे और उनके सभी भजन केवल श्री कृष्ण जी को ही समर्पित थे। हरिदास जी का जन्म सन 1535 में भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की अष्टमी को वृन्दावन के ही निकट गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री गंगाधर जी एवं माता श्रीमती चित्रा देवी थीं। हरिदास जी ने स्वामी आशुधीर जी के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण की थी तथा उन्ही से युगल मन्त्र की दीक्षा ली। दीक्षा लेने के पश्चात् वे यमुना के समीप ही एकांतवास में चले गए तथा वहीं ध्यानमग्न रहने लगे। इनका मन बाल्यावस्था से ही संसार से विरक्त था, और युवावस्था आते आते वे और अधिक भक्ति में लीन होने लगे। वह कभी कभी प्रभु भक्ति में लीन होकर ऐसे भजन गाते की उनकी आँखों से प्रेम के अश्रु बहने लगते। कहा जाता है, उनके मधुर भजन सुनकर तथा उनके मन के शुद्ध भावों को देखकर श्री कृष्ण तथा राधारानी ने उन्हें दर्शन भी दिए। वह चाहते थे की बिहारी जी सदैव उनके पास ही रहें इसलिए बिहारी जी तथा राधारानी एक विग्रह के रूप में प्रकट हुए। तथा हरिदास जी को स्वप्नादेश दिया
की उनके विग्रह को भूमि से बहार निकालो तथा उसकी सेवा करो। यही विग्रह बांके बिहारी नाम से जगत्प्रसिद्ध हुआ। चूँकि मूर्ति को मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन निकाला गया था इसलिए इस दिन को प्रत्येक वर्ष प्राकट्य दिवस के रूप में मनाते हैं।
स्वामी हरिदास जी प्रसिद्द गायक तानसेन और बैजू बावरा के गुरु भी थे। यह सभी जानते हैं की तानसेन अपने समय के कितने अच्छे गायक थे। एक बार अकबर ने तानसेन को विश्व का सबसे अच्छा गायक घोषित कर दिया किन्तु तानसेन ने अपने गुरु की गायकी के विषय में बताया जो किसी के दरबार की शोभा नहीं बढाती थी केवल बांके बिहारी जी को समर्पित थी।
स्वामी हरिदास जी के विषय में सुनकर अकबर भी उनसे मिलने को उतावला हो गया। तानसेन उन्हें स्वामी जी के पास ले गए किन्तु वे जानते थे स्वामी जी अपने मन से गाते हैं किसी को सुनाने के लिए नहीं। इसलिए एक दिन तानसेन एक राग का रियाज़ करने लगे और जानबूझ कर राग के सुर गलत लगा दिए। गलत सुर सुनकर स्वामी हरिदास जी की बहुत क्रोध आया और वह सही राग गाने लगे। उनका मधुर गायन सुनते ही आकाश के बदल झमाझम बरस उठे। और सम्राट अकबर भी उनके मुरीद हो गए।
बांके बिहारी की विशेषता -
बिहारी जी के सम्पूर्ण भारत में अलग अलग नामों से कई मंदिर हैं किन्तु इस मंदिर की विशेषता इसको अन्य मंदिरों से भिन्न बनाती है। आपको यह जानकर हैरानी होगी की अन्य मंदिरों की तरह यहां हर रोज़ मंगला आरती नहीं होती। कहते हैं यहां निधिवन में हर रात्रि रास लीला के बाद कृष्ण और राधा विश्राम करते हैं और सुबह सुबह आरती करने से उनकी निद्रा भंग होती है। बांके बिहारी जी की मंगला आरती केवल जन्माष्टमी के दिन ही होती है। इसी प्रकार केवल शरद पूर्णिमा के दिन ही श्री बांके बिहारी जी को बंशी धारण कराई जाती है। केवल श्रावण तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं और उनके चरण दर्शन भी केवल अक्षय तृतीया के दिन होते हैं। इन दिनों में ठाकुर जी के दर्शन के लिए भरी संख्या में भीड़ उमड़ती है।
यहां पर भक्तजन लगातार बांके बिहारी जी को नहीं निहार सकते क्योकि कहा जाता है बिहारी जी की आँखों में एक दिव्य तेज है यदि कोई उनकी आँखों को लगातार देखता रहे तो वह अपनी सुध खोकर कृष्ण की लीला में खो जाता है। इसलिए मंदिर में नियम है की बांके बिहारी जी के दर्शन में बीच बीच में पर्दा दाल दिया जाता है। यह भी मान्यता है कि बिहारी जी यदि किसी की आँखों में ज़्यादा देर तक देख लें तो वे उसी के साथ चले जाते हैं। इसलिए भी पर्दा करते रहने का नियम बनाया गया है।
कैसे पहुचें? :-
उत्तर प्रदेश में मुख्यतः गर्मियों में बहुत अधिक गर्मी रहती है, इसलिए यहां घूमने का उत्तम समय सितम्बर से नवंबर के बीच है।
विमान द्वारा:
वृन्दावन का निकटतम हवाई अड्डा आगरा का खोरिया हवाई अड्डा है जो मथुरा से 62 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। तथा निकटतम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा दिल्ली का इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है।
ट्रेन द्वारा:
वृन्दावन का निकटतम रेलवे स्टेशन मथुरा जंक्शन है, जहाँ पहुंचने के बाद बस या कैब द्वारा आप वृंदावन पहुंच सकते हैं। मथुरा का रेलवे स्टेशन वृंदावन से लगभग 14 किमी की दूरी पर है।
बस द्वारा:
बस द्वारा वृन्दावन दिल्ली से सीधा जुड़ा हुआ है किन्तु इनकी संख्या सीमित है, हालाँकि दिल्ली से मथुरा के लिए पर्याप्त संख्या में बस चलती हैं। मथुरा बसों के माध्यम से आगरा, दिल्ली, लखनऊ और वाराणसी जैसे प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। जहाँ से वृन्दावन के लिए आराम से कोई भी वाहन मिल जाता है।